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Tuesday, January 25, 2011

गणतंत्र की परिभाषा

बचपन की धुंधली  यादों में
अभी तक महफूज़ है एक धुंधली सी परिभाषा
गणतंत्र यानी एक ऐसी व्यवस्था
जहाँ सर्वोपरि होती है जनता
जहाँ सारे फ़ैसले लेती है जनता
और उनको लागू भी करती है जनता

बचपन की दहलीज़ लांघते ही
दुनियादार लोगों ने बताई एक नयी परिभाषा
चूँकि जनता है अभी तक नादान
नहीं आता उसको राजकाज चलाने का काम
इसलिये फ़ैसले लेते हैं
जनता के नुमाइंदे
जनता के नाम
और वो उनको लागू करते हैं
जनता के नाम

वक़्त बीतने के साथ उजागर हुई
इस व्यवस्था की हकीक़त
और पाया कि यहाँ जनता के नाम पर
फ़ैसले लेते हैं जनता के लुटेरे
और उनको लागू करते हैं जनता के ख़िलाफ़

गणतंत्र के मखमली परदे के पीछे छिपी है
लूटतंत्र की घिनौनी सच्चाई
धनतंत्र की नंगई और शोषणतंत्र की हैवानगी
राजपथ की परेड के शोरगुल के पीछे दबी हैं
भूख और कुपोषण के शिकार बच्चों की चीखें
रंगबिरंगी  झाँकियों के पीछे गुम हैं
महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता की आहें

लेकिन मैंने यह भी जाना कि
गणतंत्र की उस धुंधली परिभाषा के पीछे था
जनता के संघर्षों और कुर्बानियों का एक लंबा इतिहास
और उसको अमली जामा पहनाने के लिये भी चाहिये
संघर्षों और कुर्बानियों का एक नया सिलसिला       

Saturday, January 22, 2011

(चूहा)दौड़...

दौड़
दौड़ से बाहर रहकर ही
सोचा जा सकता है
दौड़ के आलावा और कुछ
जब तक दौड़ में हो
दौड़ ही ध्येय
दौड़ ही चिन्ता
दौड़ ही मृत्यु
होने को प्रेम भी है यहाँ कविता भी
और उनका सौंदर्य भी
मगर बोध कम भोग ज़्यादा
दौड़ में दौड़ती रसिकता
सब दौड़ से दौड़ तक
सब कुछ दौड़मयी
दौड़ में दौड़ ही होते हैं
दौड़ के पड़ाव
दौड़ में रहते हुए कुछ और नहीं सोचा जा सकता
दौड़ के आलावा
यहाँ तक की ढंग से दौड़ के बारे में भी!

--शिवराम

Wednesday, January 19, 2011

हमारे समय में प्रासंगिक मुक्तिबोध की कविता

"मिथ्याचारों-भ्रष्टाचारों की मध्य रात्रि
में सभी ओर
काले-काले वीरान छोर.
ख़ुदगर्ज़ी की बदसूरत स्याह दरख्तों की
गठियल डालों पर रहे झूल
फाँसी के फंदों में मानव-आदर्श-प्रेत!!
जैसे सूखे जंगली बबूल
वैसे निहेतुक जीवन की शुष्क कविता.
सत्ताधारी की पैशाचिक हड्डी के पंजे की सत्ता
जीवन-हत्यारों की काली यह रोमहर्षमय  देश-कथा
अब क्षितिज-क्षितिज पर गूँज रहा
चीखता हुआ-सा एक शोर
शोषण के तलघर में अत्याचारों की चाबुक मार घोर."

('मालव निर्झर की झर-झर कंचन रेखा' : मुक्तिबोध )

Sunday, January 16, 2011

हमारे समय का इतिहास...

मेरे दोस्तो,
हमारे समय का इतिहास
बस यही न रह जाये
कि हम  धीरे-धीरे मरने को ही
जीना समझ बैठें
कि हमारा समय
घड़ी के साथ नहीं
हड्डियों के गलने-खपने से नापा जाए...

- पाश