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Thursday, December 16, 2010

Pablo Neruda's poem : The Standard Oil Company


This poem(originally in Spanish, "La Standard Oil Co") was written by Pablo Neruda who is known as the poet of 'enslaved humanity' in 1940 as part of a collection Canto General. The poem describes sarcastically the plunder of the natural resources of Latin America by the American firms. Even after 70 years since it was written, it is so relevant in today's world.


When the drill bored down
toward the stony fissures
and plunged its implacable intestine
into the subterranean estates,
and dead years, eyes
of the ages, imprisoned
plants’ roots
and scaly systems
became strata of water,
fire shot up through the tubes
transformed into cold liquid,
in the customs house of the heights,
issuing from its world of sinister depth,
it encountered a pale engineer
and a title deed.

However entangled the petroleum’s
arteries may be, however the layers
may change their silent site
and move their sovereignty
amid the earth’s bowels,
when the fountain gushes
its paraffin foliage,
Standard Oil arrived beforehand
with its checks and its guns,
with its governments and its prisoners.

Their obese emperors
from New York are suave
smiling assassins
who buy silk, nylon, cigars,
petty tyrants and dictators.

They buy countries, people, seas,
police, county councils,
distant regions where
the poor hoard their corn
like misers their gold:
Standard Oil awakens them,
clothes them in uniforms, designates
which brother is the enemy.
The Paraguayan fights its war,
And the Bolivian wastes away
in the jungle with its machine gun.

A President assassinated
for a drop of petroleum,
a million-acre
mortgage, a swift
execution on a morning
mortal with light, petrified,
a new prison camp for
subversives, in Patagonia,
a betrayal, scattered shots
beneath a petroliferous moon,
a subtle change of ministers
in the capital, a whisper
like an oil tide,
and zap, you’ll see
how Standard Oil’s letters
shine above the clouds,
above the seas, in your home,
illuminating their dominions.

Sunday, December 5, 2010

फ़ैज़ की नज़्म: हम देखेंगे


पाकिस्तान की मशहूर गायिका इक़बाल बानो ने १९८५ में ज़िया-उल-हक़ की सैनिक तानाशाही द्वारा फैज़ की नज़्मों पर लगाये गए प्रतिबन्ध के बावजूद बहुचर्चित नज़्म 'हम देखेंगे' गाया जिसको सुनने के लिए लगभग ५०,००० लोग इकठ्ठा हुए. 

हम देखेंगे
लाज़िम है के हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौहे-अज़ल पे लिखा है

जब ज़ुल्मों-सितम के कोहे-गरां
रूई की तरह उड़ जाएंगे
हम महकूमों के पांव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहले-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी

जब अर्ज़े-खुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहले-सफा मर्दूदे-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे

बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है, हाज़िर भी
जो मंज़र भी है, नाज़िर भी
उठ्ठेगा अनलहक़(*) का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज़ करेगी खल्क़े-खुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो .



We shall Witness
It is certain that we too, shall witness
the day that has been promised
of which has been written on the slate of eternity

When the enormous mountains of tyranny
will blow away like cotton.
Under our feet- the feet of the oppressed-
when the earth will pulsate deafeningly
and on the heads of our rulers
when lightning will strike.

From the abode of God
When icons of falsehood will be taken out,
When we, the righteous ones, the heretics
will be seated on high cushions
When the crowns will be tossed,
When the thrones will be brought down.

Only The name will survive
Who is invisible but is also present
Who is both the spectacle and the beholder
'I am the Truth'- the cry will rise,
Which is I, as well as you
And then God’s creation(people) will rule
Which is I, as well as you

अनलहक़ - 'मैं सत्य हूँ' , 'मैं ईश्वर हूँ'; ऐसा कहने पर इरानी सूफ़ी संत मंसूर को सरे आम सज़ा-ए-मौत दी गयी थी.

Thursday, November 25, 2010

Solidarity Song by Bertolt Brecht

Peoples of the world, together
Join to serve the common cause!
So it feeds us all for ever
See to it that it's now yours.

Forward, without forgetting
Where our strength can be seen now to be!
When starving or when eating
Forward, not forgetting
Our solidarity!

Black or white or brown or yellow
Leave your old disputes behind.
Once start talking with your fellow
Men, you'll soon be of one mind.

Forward, without forgetting
Where our strength can be seen now to be!
When starving or when eating
Forward, not forgetting
Our solidarity!

If we want to make this certain
We'll need you and your support.
It's yourselves you'll be deserting
if you rat your own sort.

Forward, without forgetting
Where our strength can be seen now to be!
When starving or when eating
Forward, not forgetting
Our solidarity!

All the gang of those who rule us
Hope our quarrels never stop
Helping them to split and fool us
So they can remain on top.

Forward, without forgetting
Where our strength can be seen now to be!
When starving or when eating
Forward, not forgetting
Our solidarity!

Workers of the world, uniting
Thats the way to lose your chains.
Mighty regiments now are fighting
That no tyrrany remains!

Forward, without forgetting
Till the concrete question is hurled
When starving or when eating:
Whose tomorrow is tomorrow?
And whose world is the world? 

Thursday, November 18, 2010

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की कविता - सभी अफ़सर उनके ...


वो सब कुछ करने को तैयार
सभी अफसर उनके
जेल और सुधार-घर उनके
सभी दफ़्तर उनके
                        कानूनी किताबें उनकी
                        कारखाने हथियारों के
                        पादरी प्रोफ़ेसर उनके
                        जज और जेलर तक उनके
                       सभी अफसर उनके
अखबार, छापेखाने
हमें अपना बनाने के
बहाने चुप कराने के
नेता और गुण्डे तक उनके
                       एक दिन ऐसा आयेगा
                       पैसा फिर काम न आएगा
                       धरा हथियार रह जायेगा
                       और ये जल्दी ही होगा
                       ये ढाँचा बदल जायेगा
                               ये ढाँचा बदल जायेगा
                                           ये ढाँचा बदल जायेगा
  • बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ('मदर' नाटक से)

Sunday, October 17, 2010

तस्वीर बदल दो दुनिया की!!!

तोड़ो ये दीवारें, भर दो अब ये गहरी खाई
जागो दुखियारे इन्सानो
         तस्वीर बदल दो दुनिया की
         तस्वीर बदल दो दुनिया की
         तस्वीर बदल दो दुनिया की

चलती मशीनें ये तेरे ही हाथों से
उगती हैं फसलें ये तेरे ही हाथों से
क्यों फिर ले जाते हैं
ज़ुल्मी जोंक तुम्हारी कमाई
उठ जाओ मज़दूरो और किसानो
         तस्वीर बदल दो दुनिया की
         तस्वीर बदल दो दुनिया की
         तस्वीर बदल दो दुनिया की

ये चौबारे महल उठाये हैं तूने
सुख के सब सामान जुटाये हैं तूने
फिर क्यों बच्चों ने तेरे
हर दम आधी रोटी खायी
उठ जाओ मज़लूमो और जवानो
         तस्वीर बदल दो दुनिया की
         तस्वीर बदल दो दुनिया की
         तस्वीर बदल दो दुनिया की

ज़ुल्मों की कब्रें तेरे ही हाथ खुदेंगी
तेरे ही हाथों नयी दुनिया बनेगी
मत ये समझो तूने 
जीवन की सब पूँजी गँवायी
जागो दुखियारे इन्सानो
         तस्वीर बदल दो दुनिया की
         तस्वीर बदल दो दुनिया की
         तस्वीर बदल दो दुनिया की

 - शशि प्रकाश

Saturday, October 16, 2010

ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम लड़ो!!!

ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम लड़ो,
तुम लड़ो, तुम लड़ो
तुम लड़ो कि चहचहा उठें हवा के परिन्‍दे
तुम लड़ो कि आसमान चूम ले ज़मीन को
तुम लड़ो कि ज़िन्दगी महक उठे
और फिर,
प्‍यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।

ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम उठो,
तुम उठो, तुम उठो
तुम उठो, उठो कि उठ पड़ें असंख्‍य हाथ
चल पड़ो कि चल पड़ें असंख्‍य पैर साथ
मुस्‍कुरा उठे क्षितिज पे भोर की किरन
और फिर,
प्‍यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।

ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम बहो,
तुम बहो, तुम बहो
रुधिर प्रवाह की तरह बहो कि लालिमा
मिटा सके कलंक की सितम की कालिमा
बहो कि ख़ुशी कै़द कभी की न जा सके
और फिर,
प्‍यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।

ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम जलो,
तुम जलो, तुम जलो
तुम जलो कि रौशनी के पंख फड़फड़ा उठें
कुचल दिये गये दिलों के तार झनझना उठें
सुषुप्‍त आत्‍मा जगे, गरज उठे
और फिर,
प्‍यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।

ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम रचो,
तुम रचो, तुम रचो
तुम रचो हवा, पहाड़, रौशनी नयी
ज़िन्दगी नयी महान आत्‍मा नयी
सांस-सांस भर उठे अमिट सुगन्‍ध से
और फिर,
प्‍यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।

- शशि प्रकाश

Friday, October 8, 2010

ईश्वर की सत्ता में यकीन रखने वाले मित्रों से एक अपील!!!

सर्वशक्तिमान,सर्वज्ञानी, सर्वत्र परमपिता परमेश्वर
जिनकी मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता,
उनकी सत्ता में यकीन रखने वाले मेरे धार्मिक मित्रों!
मेरी तरफ़ से अपने परमपिता से कुछ सवाल करोगे क्या?

मुझे तो अधर्मी, काफ़िर होने के संगीन जुर्म में
बिना सुनवाई के, हिटलरशहाना अंदाज़ में
नरक के कंसन्ट्रेशन कैम्प में भेज दिया जायेगा.
इसलिए जब कभी तुम्हे अपने परमपिता के
दुर्लभ दर्शन होने का सौभाग्य प्राप्त हो,
या फिर जब तुम्हे आलीशान स्वर्ग की ओर ले जाया जा रहा हो,
उस समय मेरी तरफ़ से कुछ सवाल करोगे क्या?

उनसे पूछना कि जब हीरोशिमा और नागासाकी पर
शैतान अमेरिका गिरा रहा था परमाणु बम,
तो मानवता का कलेजा तो हो गया था छलनी छलनी ,
लेकिन महाशय के कानों में क्यों नहीं रेंगी जूँ तक?

फिर उनसे पूछना कि जब दिल्ली की सड़कों पर
कोंग्रेसी राक्षस मासूम सिखों का कर रहे थे कत्लेआम,
तब यह धरती तो काँप उठी थी
लेकिन बैकुंठ में क्यों नहीं हुई ज़रा सी भी हलचल?

उनसे यह भी पूछना कि जब गुजरात में
संघ परिवार के ख़ूनी दरिंदों द्वारा
मुस्लिम महिलाओं का हो रहा था सामूहिक बलात्कार,
तब इंसानियत तो हो गयी थी शर्मसार
पर जनाब के रूह में क्यों नहीं हुई थोड़ी भी हरकत?

और यह भी कि बरखुरदार किस करवट सो रहे होते हैं
जब उनके मंदिर के नाम पर गिराई जाती है मस्जिद,
जब ज़िहाद के नाम पर क़त्ल किये जा रहे होते हैं निर्दोष नागरिक?

आख़िर मालिक क्यों नहीं होते टस से मस?
जब मुनाफ़े कि वहशियाना हवस को मिटाने कि ख़ातिर
मिल मालिक जोंक कि तरह चूस रहे होते हैं मज़दूरों का खून.

योर ऑनर किस जुर्म कि सज़ा देते हैं
भूकंप और सूनामी पीड़ितों को?

पूछने को तो और भी बहुत कुछ है,
जैसे कि वियतनाम,फिलिस्तीन,अफगानिस्तान, इराक और अब पकिस्तान..

लेकिन मुझे लगता नहीं कि तुम कर पाओगे इतना साहस
आखिर तुम्हे अपने स्वर्ग और मोक्ष की परवाह है,
भले ही इस दुनिया में लोग जी रहे हों नरक से भी बदतर ज़िन्दगी
इससे तुम्हे क्या फ़र्क पड़ता है कि इस दुनिया में है इतनी अशांति
तुम्हे तो बस अपनी मानसिक शांति कि फ़िक्र है.

आख़िर तुम हो तो इसी व्यवस्था की उपज
जहाँ लोगों के दिमाग में ठूसा जाता है बस अपने लिए जीना
लेकिन मैं भी तो हूँ इसी व्यवस्था की उपज
मैं खुले आम करता हूँ विद्रोह
न सिर्फ इहलोक की ज़ालिम सत्ता के ख़िलाफ़
बल्कि परलोक की अमानवीय सत्ता के भी ख़िलाफ़.
क्योंकि अब हो चला है मुझे यक़ीन
कि हर तरह के अन्याय के ख़िलाफ़
विद्रोह न्यायसंगत और मानवीय है! 


- आनन्‍द सिंह

Tuesday, September 21, 2010

पाश की कविता: सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना

श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-सोए पकड़े जाना - बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
पर सबसे ख़तरनाक नहीं होता

कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ने लग जाना - बुरा तो है
भींचकर जबड़े बस वक्‍त काट लेना - बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शान्ति से भर जाना
न होना तड़प का, सब सहन कर जाना,
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

सबसे ख़तरनाक वह घड़ी होती है
तुम्हारी कलाई पर चलती हुई भी जो
तुम्हारी नज़र के लिए रुकी होती है


सबसे ख़तरनाक वह आँख होती है
जो सबकुछ देखती हुई भी ठण्डी बर्फ होती है
जिसकी नज़र दुनिया को
मुहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीज़ों से उठती अन्धेपन की
भाप पर मोहित हो जाती है
जो रोज़मर्रा की साधारणतया को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दोहराव के दुष्चक्र में ही गुम जाती है


सबसे ख़तरनाक वह चाँद होता है
जो हर कत्ल-काण्ड के बाद
वीरान हुए आँगनों में चढ़ता है
लेकिन तुम्हारी आँखों में मिर्चों की तरह नहीं लड़ता है

सबसे ख़तरनाक वह गीत होता है
तुम्हारे कान तक पहुंचने के लिए
जो विलाप को लाँघता है
डरे हुए लोगों के दरवाज़े पर जो
गुण्डे की तरह हुँकारता है

सबसे ख़तरनाक वह रात होती है
जो उतरती है जीवित रूह के आकाशों पर
जिसमें सिर्फ उल्लू बोलते गीदड़ हुआते
चिपक जाता सदैवी अँधेरा बन्द दरवाज़ों की चैगाठों पर

सबसे ख़तरनाक वह दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाये
और उसकी मुर्दा धूप की कोई फांस
तुम्हारे जिस्म के पूरब में चुभ जाये

श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती

गोरख पाण्डेय की कविता - कानून

लोहे के पैरों में भारी बूट
कन्‍धे से लटकती बन्दूक
कानून अपना रास्ता पकड़ेगा
हथकड़ियाँ डालकर हाथों में
तमाम ताकत से उन्हें
जेलों की ओर खींचता हुआ
गुजरेगा विचार और श्रम के बीच से
श्रम से फल को अलग करता
रखता हुआ चीजों को
पहले से तय की हुई
जगहों पर
मसलन अपराधी को
न्यायाधीश की, ग़लत को सही की
और पूँजी के दलाल को
शासक की जगह पर
रखता हुआ
चलेगा
मजदूरों पर गोली की रफ्तार से
भुखमरी की रफ्तार से किसानों पर
विरोध की जुबान पर
चाकू की तरह चलेगा
व्याख्या नहीं देग
बहते हुए ख़ून की
कानून व्याख्या से परे कहा जायेगा
देखते-देखते
वह हमारी निगाहों और सपनों में
खौफ बनकर समा जायेगा
देश के नाम पर
जनता को गिरफ्तार करेगा
जनता के नाम पर
बेच देगा देश
सुरक्षा के नाम पर
असुरक्षित करेगा
अगर कभी वह आधी रात को
आपका दरवाजा खटखटायेगा
तो फिर समझिये कि आपका
पता नहीं चल पायेगा
खबरों में इसे मुठभेड़ कहा जायेगा
पैदा होकर मिल्कियत की कोख से
बहसा जायेगा
संसद में और कचहरियों में
झूठ की सुनहली पालिश से
चमकाकर
तब तक लोहे के पैरों
चलाया जायेगा कानून
जब तक तमाम ताकत से
तोड़ा नहीं जायेगा।

पैरों से रौंदे जाते हैं आज़ादी के फूल

                                                    स्‍पष्‍टीकरण
यह कविता पहले लेनिन की कविता के नाम से 2010 में इस ब्‍लॉग पर दी गयी थी । परन्‍तु यह वास्‍तव में लेनिन की कविता नहीं है।लेनिन की कविता इस लिंक पर पढ़ी जा सकती है
http://vikalpmanch.wordpress.com/2012/06/10/%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0-%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%B5%E0%A4%B9/

पैरों से
रौंदे जाते हैं आज़ादी के फूल
और अधिक चटख रंगों में
फिर से खिलने के लिए।

जब भी बहता है
मेहनतकश का लहू सड़कों पर,
परचम और अधिक सुर्ख़रू
हो जाता है।

शहादतें इरादों को
फ़ौलाद बनाती हैं।
क्रान्तियाँ हारती हैं
परवान चढ़ने के लिए।

गिरे हुए परचम को
आगे बढ़कर उठा लेने वाले
हाथों की कमी नहीं होती।

Saturday, July 3, 2010

वो सुबह कभी तो आएगी


इन काली सदियों के सर से जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नगमे गाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी
जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
इन भूखी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फ़रमाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर इन्सानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
इन्सानों की इज्जत जब झूठे सिक्कों में न तोली जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को ना बेचा जाएगा
चाहत को ना कुचला जाएगा, इज्जत को न बेचा जाएगा
अपनी काली करतूतों पर जब ये दुनिया शर्माएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये भूख के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इजारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फांकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीख न मांगेगा
हक़ मांगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

फ़आक़ों की चिताओ पर जिस दिन इन्सां न जलाए जाएंगे
सीने के दहकते दोज़ख में अरमां न जलाए जाएंगे
ये नरक से भी गंदी दुनिया, जब स्वर्ग बनाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते
जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
वो सुबह न आए आज मगर, वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह न आए आज मगर, वो सुबह कभी तो आएगी

वो सुबह कभी तो आएगी