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Monday, March 21, 2011

फ़ैज़ की नज़्म - सिपाही का मर्सिया

उट्ठो अब माटी से उट्ठो
जागो मेरे लाल 
अब जागो मेरे लाल 
तुम्हरी सेज सजावन कारन
देखो आई रैन अँधियारन
नीले शाल-दोशाले ले कर
जिन में इन दुखियन अँखियन ने
ढ़ेर किये हैं इतने मोती
इतने मोती जिनकी ज्योती 
दान से तुम्हरा, जगमग  लागा 
नाम चमकने. 
उट्ठो अब माटी से उट्ठो
जागो मेरे लाल 
अब जागो मेरे लाल  
घर-घर बिखरा भोर का कुन्दन 
घोर अँधेरा अपना आँगन
जाने कब से राह तके हैं
बाली दुल्हनिया बाँके वीरन
सूना तुम्हरा राज पड़ा है
देखो कितना काज पड़ा है
बैरी बिराजे राज सिंहासन
तुम माटी में लाल
उठो अब माटी से उठो,जागो मेरे लाल
हाथ  न करो माटी से उठो,जागो मेरे लाल
जागो मेरे लाल

Monday, March 14, 2011

पाश की कविता - हम लड़ेंगे साथी


हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिये
हम लड़ेंगे साथी, गुलाम इच्छाओं के लिये
हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े
हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर 
हल अब भी चलता हैं चीखती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता है, प्रश्न नाचता है
प्रश्न के कंधों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी
कत्ल हुए ज़ज्बों की कसम खाकर
बुझी हुई नज़रों की कसम खाकर
हाथों पर पड़े घट्टों की कसम खाकर
हम लड़ेंगे साथी.....
....
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की ज़रुरत बाकी है
जब तक बंदूक न हुई, तब तक तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रुरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे
कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सजा कबूलने के लिए
लड़ते हुए जो मर गए

उनकी याद ज़िन्दा रखने के लिए
हम लड़ेंगे