ऐ रहबरे-मुल्को-कौम बता
आँखें तो उठा नज़रें तो मिला
कुछ हम भी सुने हमको भी बता
ये किसका लहू है कौन मरा…
धरती की सुलगती छाती पर
बेचैन शरारे पूछते हैं
हम लोग जिन्हें अपना न सके
वे खून के धारे पूछते हैं
सड़कों की जुबां चिल्लाती है
सागर के किनारे पूछते है|
ये किसका लहू है कौन मरा…
ऐ अज़्मे-फना देने वालो
पैगामे-वफ़ा देने वालो
अब आग से क्यूँ कतराते हो
मौजों को हवा देने वालो
तूफ़ान से अब क्यूँ डरते हो
शोलों को हवा देने वालो
क्या भूल गए अपना नारा
ये किसका लहू है कौन मरा
हम ठान चुके हैं अब जी में
हर जालिम से टकरायेंगे
तुम समझौते की आस रखो
हम आगे बढ़ते जायेंगे
हम मंजिले-आज़ादी की कसम
हर मंजिल पे दोहराएँगे
ये किसका लहू है कौन मरा…
–साहिर लुधियानवी
(1946 के नौसेना विद्रोह के समय लिखी नज़्म)
आँखें तो उठा नज़रें तो मिला
कुछ हम भी सुने हमको भी बता
ये किसका लहू है कौन मरा…
धरती की सुलगती छाती पर
बेचैन शरारे पूछते हैं
हम लोग जिन्हें अपना न सके
वे खून के धारे पूछते हैं
सड़कों की जुबां चिल्लाती है
सागर के किनारे पूछते है|
ये किसका लहू है कौन मरा…
ऐ अज़्मे-फना देने वालो
पैगामे-वफ़ा देने वालो
अब आग से क्यूँ कतराते हो
मौजों को हवा देने वालो
तूफ़ान से अब क्यूँ डरते हो
शोलों को हवा देने वालो
क्या भूल गए अपना नारा
ये किसका लहू है कौन मरा
हम ठान चुके हैं अब जी में
हर जालिम से टकरायेंगे
तुम समझौते की आस रखो
हम आगे बढ़ते जायेंगे
हम मंजिले-आज़ादी की कसम
हर मंजिल पे दोहराएँगे
ये किसका लहू है कौन मरा…
–साहिर लुधियानवी
(1946 के नौसेना विद्रोह के समय लिखी नज़्म)