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Saturday, January 22, 2011

(चूहा)दौड़...

दौड़
दौड़ से बाहर रहकर ही
सोचा जा सकता है
दौड़ के आलावा और कुछ
जब तक दौड़ में हो
दौड़ ही ध्येय
दौड़ ही चिन्ता
दौड़ ही मृत्यु
होने को प्रेम भी है यहाँ कविता भी
और उनका सौंदर्य भी
मगर बोध कम भोग ज़्यादा
दौड़ में दौड़ती रसिकता
सब दौड़ से दौड़ तक
सब कुछ दौड़मयी
दौड़ में दौड़ ही होते हैं
दौड़ के पड़ाव
दौड़ में रहते हुए कुछ और नहीं सोचा जा सकता
दौड़ के आलावा
यहाँ तक की ढंग से दौड़ के बारे में भी!

--शिवराम

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