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Tuesday, September 21, 2010

पैरों से रौंदे जाते हैं आज़ादी के फूल

                                                    स्‍पष्‍टीकरण
यह कविता पहले लेनिन की कविता के नाम से 2010 में इस ब्‍लॉग पर दी गयी थी । परन्‍तु यह वास्‍तव में लेनिन की कविता नहीं है।लेनिन की कविता इस लिंक पर पढ़ी जा सकती है
http://vikalpmanch.wordpress.com/2012/06/10/%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0-%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%B5%E0%A4%B9/

पैरों से
रौंदे जाते हैं आज़ादी के फूल
और अधिक चटख रंगों में
फिर से खिलने के लिए।

जब भी बहता है
मेहनतकश का लहू सड़कों पर,
परचम और अधिक सुर्ख़रू
हो जाता है।

शहादतें इरादों को
फ़ौलाद बनाती हैं।
क्रान्तियाँ हारती हैं
परवान चढ़ने के लिए।

गिरे हुए परचम को
आगे बढ़कर उठा लेने वाले
हाथों की कमी नहीं होती।

1 comments:

Dream Writer said...

now that a poem.

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