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Saturday, December 19, 2015

हबीब जालिब की नज़्म “कॉफ़ी-हाउस”



दिन-भर कॉफ़ी-हाउस में बैठे कुछ दुबले-पतले नक़्क़ाद*
बहस यही करते रहते हैं सुस्त अदब की है रफ़्तार
सिर्फ़ अदब के ग़म में ग़लताँ* चलने फिरने से लाचार
चेहरों से ज़ाहिर होता है जैसे बरसों के बीमार
उर्दू-अदब में ढाई हैं शायर ‘मीर’ ओ ‘ग़ालिब’ आधा ‘जोश’
या इक-आध किसी का मिस्रा या ‘इक़बाल’ के चंद अशआर
या फिर नज़्म है इक चूहे पर हामिद-‘मदनी’ का शहकार*
कोई नहीं है अच्छा शायर कोई नहीं अफ़्साना-निगार*
‘मंटो’ ‘कृष्ण’ ‘नदीम’ और ‘बेदी’ इन में जान तो है लेकिन
ऐब ये है इन के हाथों में कुंद ज़बाँ की है तलवार
‘आली’ अफ़सर ‘इंशा’ बाबू ‘नासिर’ ‘मीर’ के बर-ख़ुरदार
‘फ़ैज़’ ने जो अब तक लिक्खा है क्या लिक्खा है सब बे-कार
उन को अदब की सेह्हत का ग़म मुझ को उन की सेह्हत का
ये बेचारे दुख के मारे जीने से हैं क्यूँ बे-ज़ार*
हुस्न से वहशत* इश्क़ से नफ़रत अपनी ही सूरत से प्यार
ख़ंदा-ए-गुल पर एक तबस्सुम गिर्या-ए-शबनम* से इंकार
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*नक़्क़ाद – आलोचक
*ग़लताँ – लोटना
*शहकार – श्रेष्ठ कृति
*अफ़्साना-निगार – कहानीकार
*बे-ज़ार – ऊबे हुए
*वहशत – डर
*ख़ंदा-ए-गुल – फूल की हँसी
*तबस्सुम – मुस्कान
*गिर्या-ए-शबनम – ओस का दु:ख
साभार- https://rekhta.org/

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