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Wednesday, November 2, 2011

धीमी मौत


जो बन जाते हैं आदत के ग़ुलाम,
चलते रहते हैं रोज़ उन्‍हीं राहों पर,
बदलती नहीं जिनकी कभी रफ़्तार,
जो अपने कपड़ों के रंग बदलने का जोखिम नहीं उठाते,
और बातें नहीं करते अनजान लोगों से,
वे मरते हैं धीमी मौत।

जो रहते हैं दूर आवेगों से,
भाती है जिन्‍हें सियाही उजाले से ज़्यादा,
जिनका 'मैं' बेदखल कर देता है उन भावनाओं को,
जो चमक भरती हैं तुम्‍हारी आँखों में,
उबासियों को मुस्कान में बदल देती हैं,
ग़लतियों और दु:खों से उबारती हैं हृदय को,
वे मरते हैं धीमी मौत।

जो उलट-पुलट नहीं देते सबकुछ
जब काम हो जाए बोझिल और उबाऊ,
किसी सपने के पीछे भागने की ख़ातिर
चल नहीं पड़ते अनजान राहों पर,
जो ज़ि‍न्‍दगी में कभी एक बार भी,
समझदारी भरी सलाह से बचकर भागते नहीं,

वे मरते हैं धीमी मौत।
जो निकलते नहीं यात्राओं पर,
जो पढ़ते नहीं,
नहीं सुनते संगीत,
ढूँढ़ नहीं पाते अपने भीतर की लय,
वे मरते हैं धीमी मौत।

जो ख़त्‍म कर डालते हैं ख़ुद अपने प्रेम को,
थामते नहीं मदद के लिए बढ़े हाथ,
जिनके दिन बीतते हैं
अपनी बदकिस्‍मती या
कभी न रुकने वाली बारिश की शिकायतों में
वे मरते हैं धीमी मौत।

जो कोई परियोजना शुरू करने से पहले ही छोड़ जाते हैं,
अपरिचित विषयों के बारे में पूछते नहीं सवाल,
और चुप रहते हैं उन चीज़ों के बारे में पूछने पर
जिन्‍हें वे जानते हैं,
वे मरते हैं धीमी मौत।

किश्‍तों में मरते चले जाने से बचना है
तो याद रखना होगा हमेशा
कि ज़ि‍न्‍दा रहने के लिए काफ़ी नहीं बस साँस लेते रहना,
कि एक प्रज्‍ज्वल धैर्य ही ले जाएगा हमें
एक जाज्‍वल्‍यमान सुख की ओर।

-- पाब्‍लो नेरूदा

Friday, October 21, 2011

आंखों में हमारी नयी दुनिया के ख़्‍वाब हैं

दुनिया के हर सवाल के हम ही जवाब हैं
आंखों में हमारी नयी दुनिया के ख़्‍वाब हैं।
इन बाजुओं ने साथी ये दुनिया बनायी है
काटा है जंगलों को,बस्‍ती बसाई है
जांगर खटा के खेतों में फसलें उगाई हैं
सड़कें निकाली हैं अटारी उठाई है
ये बांध बनाये हैं फ़ैक्‍टरी बनाई है
हम बेमिसाल हैं हम लाजवाब हैं
आंखों में हमारी नयी दुनिया के ख़्‍वाब हैं।
अब फिर नया संसार बनाना है हमें ही
नामों-निशां सितम का मिटाना है हमें ही
अब आग में से फूल खिलाना है हमें ही
फिर से अमन का गीत सुनाना है हमें ही
हम आने वाले कल के आफताबे-इन्‍क़लाब हैं
आंखों में हमारी नयी दुनिया के ख्‍़वाब हैं।
हक़ के लिये अब जंग छेड़ दो दोस्‍तो
जंग बन के फूल उगेगा दोस्‍तो
बच्‍चों की हंसी को ये खिलायेगा दोस्‍तो
प्‍यारे वतन को स्‍वर्ग बनायेगा दोस्‍तो
हम आने वाले कल की इक खुली किताब हैं
आंखों में हमारी नयी दुनिया के ख्‍़वाब हैं।

-शशि प्रकाश

Wednesday, August 31, 2011

Which side are you on? :: by Pete Seeger

Which side are you on boys?
Which side are you on?
Which side are you on boys?
Which side are you on?

They say in Harlan County
There are no neutrals there.
You'll either be a union man
Or a thug for J. H. Blair.

Which side are you on boys?
Which side are you on?
Which side are you on boys?
Which side are you on?

My dady was a miner,
And I'm a miner's son,
He'll be with you fellow workers
Until this battle's won.

Which side are you on?
Which side are you on?
Which side are you on?
Which side are you on?

Oh workers can you stand it?
Oh tell me how you can?
Will you be a lousy scab
Or will you be a man?

Which side are you on?
Which side are you on?
Which side are you on?
Which side are you on?

Come all you good workers,
Good news to you I'll tell
Of how the good old union
Has come in here to dwell.

Which side are you on?
Which side are you on?
Which side are you on?
Which side are you on?

Tuesday, August 30, 2011

शहीदों के लिए

ज़ि‍न्‍दगी लड़ती रहेगी, गाती रहेगी
नदियाँ बहती रहेंगी
कारवाँ चलता रहेगा, चलता रहेगा, बढ़ता रहेगा
मुक्ति की राह पर
छोड़कर साथियो, तुमको धरती की गोद में।

खो गये तुम हवा बनकर वतन की हर साँस में
बिक चुकी इन वादियों में गन्‍ध बनकर घुल गये
भूख से लड़ते हुए बच्‍चों की घायल आस में
कर्ज़ में डूबी हुई फसलों की रंगत बन गये

ख्‍़वाबों के साथ तेरे चलता रहेगा...

हो गये कुर्बान जिस मिट्टी की खातिर साथियो
सो रहो अब आज उस ममतामयी की गोद में
मुक्ति के दिन तक फ़िज़ाँ में खो चुकेंगे नाम तेरे
देश के हर नाम में ज़ि‍न्‍दा रहोगे साथियो

यादों के साथ तेरे चलता रहेगा...

जब कभी भी लौट कर इन राहों से गुज़रेंगे हम
जीत के सब गीत कई-कई बार हम फिर गायेंगे
खोज कैसे पायेंगे मिट्टी तुम्‍हारी साथियो
ज़र्रे-ज़र्रे को तुम्‍हारी ही समाधि पायेंगे

लेकर ये अरमाँ दिल में चलता रहेगा...


Thursday, June 16, 2011

बड़ी-बड़ी कोठिया सजाए पूँजीपतिया...


बड़ी-बड़ी कोठिया सजाए पूँजीपतिया
कि दुखिया के रोटिया चोराए-चोराए
अपने महलिया में करे उजियरवा
कि बिजरी के रडवा जराए-जराए

कत्तो बने भिटवा कतहुँ बने गढ़ई
कत्तो बने महल कतहुँ बने मड़ई
मटिया के दियना तूहीं त बुझवाया
कि सोनवा के बेनवा डोलाए-डोलाए

मिलया में खून जरे खेत में पसीनवा
तबहुं न मिलिहैं पेट भर दनवा
अपनी गोदमिया तूहीं त भरवाया
कि बड़े-बड़े बोरवा सियाए-सिआए

राम अउर रहीम के ताके पे धइके लाला
खोई के ईमनवा बटोरे धन काला
देसवा के हमरे तू लूट के खाय
कई गुना दमवा बढ़ाए-बढ़ाए

जे त करे काम, छोट कहलावे
ऊ बा बड़ मन जे जतन बतावे
दस के सासनवा नब्बे पे करवावे
इहे परिपटिया चलाए-चलाए

जुड़ होई छतिया तनिक दऊ बरसा
अब त महलिया में खुलिहैं मदरसा
दुखिया के लरिका पढ़े बदे जइहैं
छोट-बड़ टोलिया बनाए-बनाए

बिनु काटे भिंटवा गड़हिया न पटिहैं
अपने खुसी से धन-धरती न बटिहैं
जनता केतलवा तिजोरिया पे लगिहैं
कि महल में बजना बजाए-बजाए

बड़ी-बड़ी कोठिया सजाए पूँजीपतिया
कि दुखिया के रोटिया चोराए-चोराए।

                                       - जमुई  खाँ आज़ाद 

Thursday, April 28, 2011

हम वो इंक़लाब हैं!!!


रुके न जो, झुके न जो, दबे न जो,मिटे न जो
हम वो इंक़लाब हैं,ज़ुल्म का जवाब हैं
हर शहीद का,गरीब का हमीं तो ख़्वाब हैं।

तख़्त और ताज को, कल के लिए आज को
जिसमें ऊंच-नीच है ऐसे हर समाज को
हम बदल के ही रहेंगे वक़्त के मिजाज़ को

क्रांति कि मांग है, जंगलों में आग है
दासता की बेड़ियों को तोड़ते बढ़ जायेंगे .
लड़ रहे हैं इसलिए की प्यार जग में जी सके
आदमी का खून कोई आदमी न पी सके

मालिकों- मजूर के,
नौकरों हुजूर के
भेद हम मिटायेंगे, समानता को लायेंगे.

जानते नहीं हैं फ़र्क हिन्दू-मुसलमान का
मानते हैं रिश्ता इंसान से इंसान का
धर्म के देश के, भाषा के भेष के
फ़र्क को मिटायेंगे, समानता को लायेंगे

हुक्म चल सकेगा नहीं ज़ुल्मी हुक्मरान का
सारे जग पे हक हमारा, हम पे इस जहाँ का
गरीब को जगायेंगे, गरीबी को मिटायेंगे
एकता के जोर पे हर ज़ुल्म से लड़ जायेंगे.

रुके न जो, झुके न जो, दबे न जो, मिटे न जो
हम वो इंक़लाब हैं,ज़ुल्म का जवाब हैं
हर शहीद का,गरीब का हमीं तो ख़्वाब हैं।

--छात्र युवा संघर्ष वाहिनी

Sunday, April 10, 2011

शिखरों तक जाने के लिए

कौवाउड़ान दूरियाँ तय करके
संभव नहीं
इन शिखरों तक  पहुँच पाना.
इन तक पहुँचने की
दुर्गम, कठिन, सर्पिल
चढाव-उतार भरी
राहों को जानना होगा.
यात्राओं के लम्बे अनुभव
होने चाहिए-
सफल और असफल दोनों ही,
एकदम ज़िन्दगी की तरह 
चाहे वह आदमी की हो
या फिर किसी कौम की. 

--शशि प्रकाश

Monday, March 21, 2011

फ़ैज़ की नज़्म - सिपाही का मर्सिया

उट्ठो अब माटी से उट्ठो
जागो मेरे लाल 
अब जागो मेरे लाल 
तुम्हरी सेज सजावन कारन
देखो आई रैन अँधियारन
नीले शाल-दोशाले ले कर
जिन में इन दुखियन अँखियन ने
ढ़ेर किये हैं इतने मोती
इतने मोती जिनकी ज्योती 
दान से तुम्हरा, जगमग  लागा 
नाम चमकने. 
उट्ठो अब माटी से उट्ठो
जागो मेरे लाल 
अब जागो मेरे लाल  
घर-घर बिखरा भोर का कुन्दन 
घोर अँधेरा अपना आँगन
जाने कब से राह तके हैं
बाली दुल्हनिया बाँके वीरन
सूना तुम्हरा राज पड़ा है
देखो कितना काज पड़ा है
बैरी बिराजे राज सिंहासन
तुम माटी में लाल
उठो अब माटी से उठो,जागो मेरे लाल
हाथ  न करो माटी से उठो,जागो मेरे लाल
जागो मेरे लाल

Monday, March 14, 2011

पाश की कविता - हम लड़ेंगे साथी


हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिये
हम लड़ेंगे साथी, गुलाम इच्छाओं के लिये
हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े
हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर 
हल अब भी चलता हैं चीखती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता है, प्रश्न नाचता है
प्रश्न के कंधों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी
कत्ल हुए ज़ज्बों की कसम खाकर
बुझी हुई नज़रों की कसम खाकर
हाथों पर पड़े घट्टों की कसम खाकर
हम लड़ेंगे साथी.....
....
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की ज़रुरत बाकी है
जब तक बंदूक न हुई, तब तक तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रुरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे
कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सजा कबूलने के लिए
लड़ते हुए जो मर गए

उनकी याद ज़िन्दा रखने के लिए
हम लड़ेंगे

Friday, February 11, 2011

इंक़लाब के बारे में कुछ बातें

नहीं मिलती है
रोटी कभी लंबे समय तक
या छिन जाती है मिलकर भी बार-बार
तो भी आदमी नहीं छोड़ता है
रोटी के बारे में सोचना
और उसे पाने की कोशिश करना.
कभी-कभी लंबे समय तक आदमी नहीं पाता है प्यार
और कभी-कभी तो ज़िन्दगी भर.
खो देता है कई बार वह इसे पाकर भी
फिर भी वह सोचता है तब तक
प्यार के बारे में
जब तक धड़कता रहता है उसका दिल.
ऐसा ही,
ठीक ऐसा ही होता है
इंक़लाब के बारे में भी.
पुरानी नहीं पड़ती है हैं बातें कभी भी
इंक़लाब के बारे में.

-कात्यायनी 

Thursday, February 3, 2011

ज़िन्दगी और मौत



मौत का न होना ही ज़िन्दगी नहीं,
और ज़िन्दगी का न होना ही मौत नहीं,
जीते जी इंसान मर सकता है.
और मरते हुए भी इंसान ज़िन्दा रह सकता है.



अंधेरे में रहते हुए भी उजाले की उम्मीद में सार्थक प्रयास ज़िन्दगी की निशानी है,
उजाले में रहते हुए अंधेरे की नज़रंदाज़ी मौत की निशानी है.

वर्तमान उदासी के बावजूद भविष्य के प्रति उल्लास ज़िन्दगी की निशानी है,
ज़िन्दगी की उमंगों के बीच सामाजिक उदासी से विरक्ति मौत की निशानी है.

ज़ुल्म के ख़िलाफ़ जंग में सरफ़रोशी की तमन्ना ज़िन्दगी की निशानी है,
शोषकों से समझौता कर उनके सामने घुटने टेकना मौत की निशानी है

इंसानी अच्छाइयों से असीम प्यार और बुराइयों से बेइन्तेहाँ नफ़रत ज़िन्दगी की निशानी है,
अन्याय और उत्पीड़न को देखते हुए भी अनदेखा करना मौत की निशानी है.

तात्कालिक हार के बाद भी निर्णायक जंग जीतने का इरादा ज़िन्दगी की निशानी है,
भारी जीत के नशे में पैदा अहमन्यता मौत की निशानी है.

ज़मीन पर रहते हुए भी आसमान को छू लेने की ख्वाहिश ज़िन्दगी की निशानी है,
आकाश में उड़ने के बाद ज़मीन से कट जाना मौत की निशानी है.

श्रम करते हुए ज़िन्दगी जीने का तमन्ना ज़िन्दगी की निशानी है,
और ज़िन्दगी जीने की प्रक्रिया में श्रम से अलगाव मौत की निशानी है.

मरते दम तक ज़िन्दगी का एक-एक लम्हा जीने की चाहत ज़िन्दगी की निशानी है,
ज़िन्दा रहते हुए भी मौत की घड़ी का इंतज़ार मौत की निशानी है.

ज़िन्दगी और मौत में लगातार द्वन्द चलता रहता है
शायद इसीलिये इंसान रोज़-रोज़ जीता है और रोज़-रोज़ मरता है,
कभी ज़िन्दगी का पहलू प्रधान होता है तो कभी मौत का.

Tuesday, January 25, 2011

गणतंत्र की परिभाषा

बचपन की धुंधली  यादों में
अभी तक महफूज़ है एक धुंधली सी परिभाषा
गणतंत्र यानी एक ऐसी व्यवस्था
जहाँ सर्वोपरि होती है जनता
जहाँ सारे फ़ैसले लेती है जनता
और उनको लागू भी करती है जनता

बचपन की दहलीज़ लांघते ही
दुनियादार लोगों ने बताई एक नयी परिभाषा
चूँकि जनता है अभी तक नादान
नहीं आता उसको राजकाज चलाने का काम
इसलिये फ़ैसले लेते हैं
जनता के नुमाइंदे
जनता के नाम
और वो उनको लागू करते हैं
जनता के नाम

वक़्त बीतने के साथ उजागर हुई
इस व्यवस्था की हकीक़त
और पाया कि यहाँ जनता के नाम पर
फ़ैसले लेते हैं जनता के लुटेरे
और उनको लागू करते हैं जनता के ख़िलाफ़

गणतंत्र के मखमली परदे के पीछे छिपी है
लूटतंत्र की घिनौनी सच्चाई
धनतंत्र की नंगई और शोषणतंत्र की हैवानगी
राजपथ की परेड के शोरगुल के पीछे दबी हैं
भूख और कुपोषण के शिकार बच्चों की चीखें
रंगबिरंगी  झाँकियों के पीछे गुम हैं
महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता की आहें

लेकिन मैंने यह भी जाना कि
गणतंत्र की उस धुंधली परिभाषा के पीछे था
जनता के संघर्षों और कुर्बानियों का एक लंबा इतिहास
और उसको अमली जामा पहनाने के लिये भी चाहिये
संघर्षों और कुर्बानियों का एक नया सिलसिला       

Saturday, January 22, 2011

(चूहा)दौड़...

दौड़
दौड़ से बाहर रहकर ही
सोचा जा सकता है
दौड़ के आलावा और कुछ
जब तक दौड़ में हो
दौड़ ही ध्येय
दौड़ ही चिन्ता
दौड़ ही मृत्यु
होने को प्रेम भी है यहाँ कविता भी
और उनका सौंदर्य भी
मगर बोध कम भोग ज़्यादा
दौड़ में दौड़ती रसिकता
सब दौड़ से दौड़ तक
सब कुछ दौड़मयी
दौड़ में दौड़ ही होते हैं
दौड़ के पड़ाव
दौड़ में रहते हुए कुछ और नहीं सोचा जा सकता
दौड़ के आलावा
यहाँ तक की ढंग से दौड़ के बारे में भी!

--शिवराम

Wednesday, January 19, 2011

हमारे समय में प्रासंगिक मुक्तिबोध की कविता

"मिथ्याचारों-भ्रष्टाचारों की मध्य रात्रि
में सभी ओर
काले-काले वीरान छोर.
ख़ुदगर्ज़ी की बदसूरत स्याह दरख्तों की
गठियल डालों पर रहे झूल
फाँसी के फंदों में मानव-आदर्श-प्रेत!!
जैसे सूखे जंगली बबूल
वैसे निहेतुक जीवन की शुष्क कविता.
सत्ताधारी की पैशाचिक हड्डी के पंजे की सत्ता
जीवन-हत्यारों की काली यह रोमहर्षमय  देश-कथा
अब क्षितिज-क्षितिज पर गूँज रहा
चीखता हुआ-सा एक शोर
शोषण के तलघर में अत्याचारों की चाबुक मार घोर."

('मालव निर्झर की झर-झर कंचन रेखा' : मुक्तिबोध )

Sunday, January 16, 2011

हमारे समय का इतिहास...

मेरे दोस्तो,
हमारे समय का इतिहास
बस यही न रह जाये
कि हम  धीरे-धीरे मरने को ही
जीना समझ बैठें
कि हमारा समय
घड़ी के साथ नहीं
हड्डियों के गलने-खपने से नापा जाए...

- पाश